✴विश्व का सबसे प्राचीन विश्व विद्यालय✴
प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय
1. नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda university)
2. तक्षशिला विश्वविद्यालय (Takshashila university)
3. विक्रमशीला विश्वविद्यालय
4. वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi university)
5. उदांत पुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri university)
6. सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura mahavihara)
7. पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri university)
8. जगददला, पश्चिम बंगाल में (पाल राजाओं के समय से भारत में अरबों के आने तक
9. नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश में।
10. वाराणसी उत्तर प्रदेश में (आठवीं सदी से आधुनिक काल तक)
11. कांचीपुरम, तमिलनाडु में
12. मणिखेत, कर्नाटक
13. शारदा पीठ, कश्मीर में
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय
नालंदा से भी प्राचीन विश्वविद्यालय बिहार के नालंदा जिले के तेल्हाडा़ में मिले कुषाणकालीन अवशेष. यहां नालंदा और विक्रमशीला से भी पुराने विश्वविद्यालय होने का दावा किया करीब पांच साल पहले तक यह जगह झडिय़ों से पटा हुआ एक बड़ा टीला थी. गंदगी इतनी होती थी कि इधर से गुजरना मुहाल. लेकिन दिसंबर, 2014 में बिहार के नालंदा जिले के एकंगरसराय प्रखंड में तेल्््हाड़ा गांव के दक्षिण-पश्चिम में स्थित इस टीले की खुदाई में ऐसे कई अवशेष मििले हैं, जिससे भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया है.
इस खुदाई के बाद पुरातत्वविदों का दावा है कि तेल्हाड़ा में नालंदा और विक्रमशिला से भी प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. इससे पहले तक इसे नालंदा यूनिवर्सिटी के बाद का महाविहार माना जा रहा था. यहां से मिले अवशेषों के कुषाणकालीन होने का दावा किया जा रहा है. यहां खुदाई से आंगन, बरामदा, साधना कक्ष, कुएं और नाले के साक्ष्य मिले हैं. बड़ी मात्रा में सील और सीलिंग मिली हैं. इसमें ज्यादातर टेराकोटा से बनी हैं. एक सील के ऊपर तप में लीन बुद्ध की अस्थिकाय दुर्लभ मूर्ति भी मिली है.
बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग के सचिव आनंद किशोर का दावा है, ''तेल्हाड़ा में 100 से ज्यादा ऐसी चीजें मिली हैं, जो साबित करती हैं कि तेल्हाड़ा में प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. यहां कुषाणकालीन ईंट और मुहरें मिली हैं, जिनके पहली शताब्दी में बने होने का प्रमाण मिलता है. गौर तलब है कि नालंदा को चौथी और विक्रमशिला को आठवीं शताब्दी का विश्वविद्यालय माना जाता है." राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से इसकी खुदाई जारी रखने के लिए अनुमति मांगी है. 2007 में धन्यवाद यात्रा के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तेल्हाड़ा आए थे. तब यहां की पंचायत के मुखिया डॉ. अवधेश गुप्ता ने इस पुरातत्व स्थल की खुदाई कराने का आग्रह किया था. 26 दिसंबर, 2009 को नीतीश ने खुद फावड़ा चलाकर यहां खुदाई की शुरुआत की थी.
बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. अतुल कुमार वर्मा के नेतृत्व में खुदाई शुरू की गई थी. शुरू के दो-तीन साल यहां नालंदा विश्वविद्यालय काल के बाद के अवशेष मिले थे. लेकिन बाद में कुषाणकालीन चीजें मिलने लगीं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का समय-समय पर जीर्णोद्धार होने के भी संकेत मिले हैं. यहां सबसे ऊपर पालकालीन ईंटें मिली हैं. इन ईंटों की लंबाई 32 सेमी, चौड़ाई 28 सेमी और ऊंचाई 5 सेमी है. उसके नीचे 36 सेमी लंबी, 28 सेमी चौड़ी और 5 सेमी ऊंची ईंटें मिली हैं, जो गुप्तकाल में प्रचलित थीं. इसके नीचे 42 सेमी लंबी, 32 सेमी चौड़ी और 6 सेमी ऊंची ईंटें मिली हैं, जो कुषाणकालीन संरचनाओं से मेल खाती हैं.
डॉ. वर्मा का मानना है, ''7वीं से 11वीं शताब्दी में नालंदा और आसपास का इलाका शिक्षा केंद्र के तौर पर मशहूर था. 3335-40 किलोमीटर की परिधि में नालंदा और उदंतपुरी के बाद तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अस्तित्व इसका प्रमाण है. संभवत: तेल्हाड़ा इस इलाके में पहला विश्वविद्यालय था, जिसका विस्तार बाद में नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में किया गया." तेल्हाड़ा को भी तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था. खुदाई में अग्नि के साक्ष्य और राख की एक फुट मोटी परत मिली है.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा की पढ़ाई के लिए तेल्हाड़ा बड़ा केंद्र माना जाता था. इसका उल्लेख ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा वृत्तांत में मिलता है. इसका जिक्र तीलाधक के रूप में मिलता है. चीनी यात्रियों ने इसे अपने समय का श्रेष्ठ और सुंदर महाविहार कहा है. महाविहार में तीन मंजिला मंडप के साथ-साथ अनेक तोरणद्वार, मीनार और घंटिया होती थीं. यहां के अवशेषों से भी इस बात की पुष्टि होती है.1980 के दशक में नवादा जिले के अपसढ़ में खुदाई में भी नालंदा से ज्यादा प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष मिले थे. तब के पुरातत्व निदेशक डॉ. प्रकाशचरण ने अपसढ़ को तक्षशिक्षा का समकालीन विश्वविद्यालय बताया था.
बिहार विरासत समिति के सचिव डॉ. विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ''बिहार में ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य भरे पड़े हैं. राज्य में पुरातात्विक स्थलों के सर्वेक्षण में 6,500 साइटें मिली हैं. उनमें कई महत्वपूर्ण महाविहार हैं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अवशेष उसी कड़ी का हिस्सा है."
वैदिक काल से ही भारत में शिक्षा को बहुत महत्व दिया गया है। इसलिए उस काल से ही गुरुकुल और आश्रमों के रूप में शिक्षा केंद्र खोले जाने लगे थे। वैदिक काल के बाद जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया। भारत की शिक्षा पद्धति भी और ज्यादा पल्लवित होती गई। गुरुकुल और आश्रमों से शुरू हुआ शिक्षा का सफर उन्नति करते हुए विश्वविद्यालयों में तब्दील होता गया। पूरे भारत में प्राचीन काल में 13 बड़े विश्वविद्यालयों या शिक्षण केंद्रों की स्थापना हुई।
8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था।गणित, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा विज्ञान के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों का कोई सानी नहीं था।
हालांकि आजकल अधिकतर लोग सिर्फ दो ही प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में जानते हैं पहला नालंदा और दूसरी तक्षशिला। ये दोनों ही विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध थे। इसलिए आज भी सामान्यत: लोग इन्हीं के बारे में जानते हैं, लेकिन इनके अलावा भी ग्यारह ऐसे विश्वविद्यालय थे जो उस समय शिक्षा के मंदिर थे।
1. नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda university)
यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार के पटना शहर से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर में स्थित था। इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज करा देते हैं।
सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी मिलती है। यहां 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम 450-470 को प्राप्त है। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवद्र्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
इस विश्वविद्यालय की नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी। सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था। जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे।
इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक आदि रखने के लिए खास जगह बनी हुई है। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष और अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे व झीलें भी थी। नालंदा में सैकड़ों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था। जिसमें लाखों पुस्तकें थी।
यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी।यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था।[5] इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।यहां छात्रों के रहने के लिए ३०० कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था।छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहाँ सांस्कृतिक व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है।
ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे।उस जमाने में विश्व के कई जगहों, सुमात्रा, चीन, थाइलैंड कोरिया, श्रीलंका आदि जगहों से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे पर इस विश्वविद्यालय की नामांकन प्रक्रिया बहुत मुश्किल थी l
2. तक्षशिला विश्वविद्यालय (Takshashila university)
तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 2700 साल पहले की गई थी। इस विश्विद्यालय में लगभग 10500 विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। इनमें से कई विद्यार्थी अलग-अलग देशों से ताल्लुुक रखते थे। वहां का अनुशासन बहुत कठोर था। राजाओं के लड़के भी यदि कोई गलती करते तो पीटे जा सकते थे। तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का विश्वस्तरीय केंद्र थी। वहां के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे।
आयुर्वेद और विधिशास्त्र के इसमे विशेष विद्यालय थे। कोसलराज प्रसेनजित, मल्ल सरदार बंधुल, लिच्छवि महालि, शल्यक जीवक और लुटेरे अंगुलिमाल के अलावा चाणक्य और पाणिनि जैसे लोग इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। कुछ इतिहासकारों ने बताया है कि तक्षशिला विश्विद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय की तरह भव्य नहीं था। इसमें अलग-अलग छोटे-छोटे गुरुकुल होते थे। इन गुरुकुलों में व्यक्तिगत रूप से विभिन्न विषयों के आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे।
3. विक्रमशीला
विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्म पाल ने की थी। 8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के अंंत तक यह विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में से एक था। भारत के वर्तमान नक्शे के अनुसार यह विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर शहर के आसपास रहा होगा।
कहा जाता है कि यह उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी था। यहां 1000 विद्यार्थीयों पर लगभग 100 शिक्षक थे। यह विश्वविद्यालय तंत्र शास्त्र की पढ़ाई के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता था। इस विषय का सबसे मशहूर विद्यार्थी अतीसा दीपनकरा था, जो की बाद में तिब्बत जाकर बौद्ध हो गया।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्मपाल ने ७७५-८०० ई० में की।[1] इस विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के तुरन्त बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात विद्वानों की एक लम्बी सूची है। तिब्बत के साथ इस शिक्षा केन्द्र का प्रारम्भ से ही विशेष सम्बंध रहा है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। इन विद्वानों में सबसे अधिक प्रसिद्ध दीपंकर श्रीज्ञान थे जो उपाध्याय अतीश के नाम से विख्यात हैं। विक्रमशिला का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में बारहवीं शताब्दी में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या ३००० थी। विश्वविद्यालय के कुलपति ६ भिक्षुओं के एक मण्डल की सहायता से प्रबंध तथा व्यवस्था करते थे। कुलपति के अधीन ४ विद्वान द्वार-पण्डितों की एक परिषद प्रवेश लेने हेतु आये विद्यार्थियों की परीक्षा लेती थी।
इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, न्याय, दर्शन और तंत्र के अध्ययन की विशेष व्यवस्था थी। इस विश्वविद्यालय की व्यवस्था अत्यधिक सुसंगठित थी। बंगाल के शासक शिक्षा की समाप्ति पर विद्यार्थियों को उपाधि देते थे। सन १२०३ ई० में बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया।[2]
यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्त्वज्ञान, व्याकरण आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान विद्वान आचार्यों द्वारा किया जाता था। यहाँ देश से ही नहीं विदेशों से भी विद्याध्ययन के लिए छात्र आते थे। शिक्षा समाप्ति के बाद विद्यार्थी को उपाधि प्राप्त होती थी जो उसके विषय की दक्षता का प्रमाण मानी जाती थी। पूर्व मध्ययुग में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शिक्षा केन्द्र इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था कि सुदूर प्रान्तों के विद्यार्थी जहाँ विद्या अध्ययन के लिए जाएँ। इसीलिए यहाँ छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी। यहाँ के अध्यापकों की संख्या ही ३००० के लगभग थी अतः विद्यार्थियों का उनसे तीन गुना होना तो सर्वथा स्वाभाविक ही था। इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने लगभग २०० ग्रंथों की रचना की थी। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे।
4. वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi university)
वल्लभी विश्वविद्यालय सौराष्ट्र (गुजरात) में स्थित था। छटी शताब्दी से लेकर 12 वी शताब्दी तक लगभग 600 साल इसकी प्रसिद्धि चरम पर थी। चायनीज यात्री ईत- सिंग ने लिखा है कि यह विश्वविद्यालय 7 वी शताब्दी में गुनामति और स्थिरमति नाम की विद्याओं का सबसे मुख्य केंद्र था। यह विश्वविद्यालय धर्म निरपेक्ष विषयों की शिक्षा के लिए भी जाना जाता था। यही कारण था कि इस शिक्षा केंद्र पर पढ़ने के लिए पूरी दुनिया से विद्यार्थी आते थे।
5. उदांत पुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri university)
उदांतपुरी विश्वविद्यालय मगध यानी वर्तमान बिहार में स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना पाल वंश के राजाओं ने की थी। आठवी शताब्दी के अंत से 12 वी शताब्दी तक लगभग 400 सालों तक इसका विकास चरम पर था। इस विश्वविद्यालय में लगभग 12000 विद्यार्थी थे।
6. सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura mahavihara)
सोमपुरा विश्वविद्यालय की स्थापना भी पाल वंश के राजाओं ने की थी। इसे सोमपुरा महाविहार के नाम से पुकारा जाता था। आठवीं शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच 400 साल तक यह विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था। यह भव्य विश्वविद्यालय लगभग 27 एकड़ में फैला था। उस समय पूरे
विश्व में बौद्ध धर्म की शिक्षा देने वाला सबसे अच्छा शिक्षा केंद्र था।
7. पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri university)
पुष्पगिरी विश्वविद्यालय वर्तमान भारत के उड़ीसा में स्थित था। इसकी स्थापना तीसरी शताब्दी में कलिंग राजाओं ने की थी। अगले 800 साल तक यानी 11 वी शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय का विकास अपने चरम पर था। इस विश्वविद्यालय का परिसर तीन पहाड़ों ललित गिरी, रत्न गिरी और उदयगिरी पर फैला हुआ था।
नालंदा, तशक्षिला और विक्रमशीला के बाद ये विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे प्रमुख केंद्र था। चायनीज यात्री एक्ज्युन जेंग ने इसे बौद्ध शिक्षा का सबसे प्राचीन केंद्र माना। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस विश्ववविद्यालय की स्थापना राजा अशोक ने करवाई थी।
अन्य विश्वविद्यालय (Other Universities)
प्राचीन भारत में इन विश्वविद्यालयों के अलावा जितने भी अन्य विश्वविद्यालय थे। उनकी शिक्षा प्रणाली भी इन्हीं विश्वविद्यालयों से प्रभावित थी। इतिहास में मिले वर्णन के अनुसार शिक्षा और शिक्षा केंद्रों की स्थापना को सबसे ज्यादा बढ़ावा पाल वंश के शासको ने दिया।
8. जगददला, पश्चिम बंगाल में (पाल राजाओं के समय से भारत में अरबों के आने तक
9. नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश में।
10. वाराणसी उत्तर प्रदेश में (आठवीं सदी से आधुनिक काल तक)
11. कांचीपुरम, तमिलनाडु में
12. मणिखेत, कर्नाटक
13. शारदा पीठ, कश्मीर में
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हमारा भारत वैदिककाल से लेकर अब तक अपनी अध्ययन और अध्यापन के लिये सदैव विश्व में आगे रहा है। हमारी पुरातात्विकता इसे सिध्द कर चुकी है। शायद बल्लभी विश्वविद्यालय के संस्थापक (भट्टारक) का मूल अभी अप्रकाशित लग रही है।
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