✍वेद का सही अर्थ कैसे जाने✍
✍वेद का सही अर्थ कैसे जाने✍
वेद का अर्थ समझने के लिए पाणनिकृत अष्टधायी का अध्ययन जरूरी हैं , वेद प्राप्ति का उचित स्थान संपूर्णानंद विश्वविद्यालय काशी हैं ।
सृष्टी के आदिकाल से ही हैं। इन्हे किसी ने लिखा नही है। (जिन्होंने इसे लिखा है वो अपना नाम लिखना भी ज़रूरी नहीं समझते।) यह स्वयं भगवान ब्रह्मा (ब्रह्म को जानने वाला) के मुख से प्रगट हुये थे। आज जितना विज्ञान है। वह सब हमरे वेदो मे पहले से ही निहित है। जेसे नवग्रह बिज्ञान ने अब जाकर खोजे लेकिन वह तो वेदो ने हजारो सालो पहले ही बता दिया रामायण मे भी प्रमाण मिलता है।ओर जब हम इसका अध्यन करते है।तो पाते है की यह मानव निर्मित बुद्धि से परे है। वेद विश्व का सबसे प्राचीन साहित्य है।वेद प्राचीन भारत के पवित्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं।
वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -
ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या १०५५५ है। इसका मूल विषय आत्म ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये १९७५ संगीतमय मंत्र।
यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये ३७५० गद्यात्मक मन्त्र हैं।
अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये ७२६० कवितामयी मन्त्र हैं।
वेदों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः उपांगों की व्यवस्था थी। शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन के बाद ही प्राचीन काल में वेदाध्ययन पूर्ण माना जाता था | प्राचीन काल के ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य "माधवीय वेदार्थदीपिका" बहुत मान्य है
पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं।
मध्यकाल में सायणाचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे।
वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -
वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद
वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद
वेद का गायन भाग - सामवेद
वेद की प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है: 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक 4. उपनिषद्।
वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया ! परन्तु क्या यह सत्य है ? जी नहीं सत्य ऐसे बिलकुल विपरीत है ! वास्तव में मैक्स मूलर हिन्दुओं और हिन्दू धर्मशास्त्रों का एक महान शत्रु था,
”मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति को चोर और भिखाारी नहीं पाया है ! मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखें हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उकीस संस्कृति को बदल दें क्यों यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तम है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र !”
”हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ हे हैं ! निसंदेह कुछ जगहों पर ऐसा होना मुश्किल हो रहा है, कुछ जगहों पर हमें उन सबकों शिक्षा दे पाना असंभव हो रहा है जो कि ऐसा चाहते हैं ! हुगली शहर में चौदह सौं लड़के अंग्रेजी सीख रहे हैं ! इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है ! कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है ! कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को ‘शुद्ध देववादी’ कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं ! यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा ! किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा ! ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा ! मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ !” आपका अत्यन्त प्रिय टी.बी. मैकॉले
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